पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२५४

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करिबे कहँ सूरन के मद हीने ।
रघुनायक मानहुँ द्वै बपु कीन ॥२४६॥
भरत--मुनिबालक हौ तुम यज्ञ करावौ ।
सु किधी बर बाजिहिं बाँधन धावौ ॥
अपराध क्षमौ सब आशिष दीजै ।
बर बाजि तजौ, जिय रोष न कीजै ॥२४७॥
[दो०] बाँध्यौ पट्ट जो शीश यह, क्षत्रिन काज प्रकास।
रोष करेउ बिन काज तुम, हम विप्रन के दास ॥२४८॥
[ दोधक छंद ]
कुश--बालक वृद्ध कहौ तुम काको ।
देहनि कौ, किधौं जीवप्रभा को ॥
है जड देह कहै सब कोई ।
जीव, सो बालक वृद्ध न होई ॥२४९॥
जीव जरै न मरै नहिं छीजै ।
ताकहँ सोक कहा करि कीजै ॥
जीवहिं विप्र न क्षत्रिय जानौ ।
केवल ब्रह्म हिये महँ आनौ ॥२५०॥
जो तुम देहु हमैं कछु सिच्छा ।
तो हम देहिं तुम्हैं यह भिच्छा ॥
चित्त विचार परै सोइ कीजै ।
दोष कछू न हमे अब दीजै ॥२५१॥