पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२५६

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[दोधक छद]
देववधू जबहीं हरि ल्यायो ।
क्यों तबहीं तजि ताहि न आयो ॥
यों अपने जिय के डर आयो ॥
छुद्र सबै कुलछिद्र बतायो ॥२५७॥
[दो०] जेठो भैया अन्नदा, राजा पिता समान ।
ताकी पत्नी तू करी पत्नी, मातु समान ॥२५८॥
को जानै कै बार तू, कही न ह्वैहै माइ ।
सोई तैं पत्नी करी, सुनु पापिन के राइ ॥२५९॥
[ तोटक छंद ]
सिगरै जग माँझ हँसावत है ।
रघुबसिन पाप नसावत हैं ॥
धिक तोकहूँ तू अजहूँ जो जियै ।
खल जाइ हलाहल क्यौं न पियै ॥२६०॥
कछु है अब तोकहँ लाज हिये ।
कहि कौन विचार हथयार लिये ॥
अब जाइ करीष की आगि जरौ ।
गरु बाँधि के सागर बूडि मरौ ॥२६१॥
[दो०] कहा कहौं हौ भरत कों, जानत है सब कोय ।
तोसों पापी सग है, क्यों न पराजय होय ॥


(१) करीष = जंगली कडे; करसी।