पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
( २५ )
[स्वागता छद]

। रामचद्र कटि सो पटु बॉध्यो । लीलयेव/हर को धनु साँध्यो। नेकु ताहि करपल्लव सो छ्वै । फूलमूल जिमि टूक कर यो वै ॥११६।। . . [सवैया ] उत्तम गाथ सनाथ जवै धनु श्री रघुनाथ जु हाथ के लीनो। निर्गुण ते गुणवत कियो सुख केशव सत अन तन दीनो। ऐचो जहीं तवहीं कियो सयुत तिच्छ कटाच्छ नराच नवीनो। राजकुमार निहारि सनेह सो शभु को साँचो शरासन कीनो॥११७॥ [विजया छद] ' प्रथम टकोर झुकि झारि। ससार मद, ।।' चड कोदड रह्यो मडि नव खड को। चालि अचला अचल घालि दिगपाल बल ... ५. पालि ऋषिराज के बचन परचड को। .. “ सोधु दै ईश को, बोधु जगदीश को, - क्रोधु उपजाइ भृगुन द वरिवड का। .. बाधि' वर स्वर्ग को, साधि अपवर्गर, धनु, भग को शब्द गयो भेदि ब्रह्मड को ।।११८।। जनक-[दो०] सतान द आन द मति, तुम जो हुते उन साथ । बरज्यो काहे न धनुष जब, तोर यो श्रीरघुनाथ ॥११९।। (१) बाधि = बाधा पहुँचाकर । धनुर्भग के घोर' शब्द से स्वर्ग के देवता घबड़ा गये। ( २ ) अपवर्ग = मोक्ष । मोक्ष पद सब लोको के परे समझा जाता है। सब लोका को पार कर वहाँ तक शब्द पहुँच गया ।