पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/८५

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( ३५ ) ज्यौं उर मैं भृगु-लात बखानहु । ' श्री कर को सरसीरुह मानहु । । सोहति है उर में मनि यों जनु। . जानकि को अनुरागि रह्यो मनु ॥१६७।। । [ दो०] सोहत जनरत-रामउर, देखत जिनको भाग। .. । आइ गयो ऊपर मनो, अतर को अनुराग ॥१६८॥ [पद्धटिका छद] सुभ मोतिन की दुलरी सुदेस । - जनु वेदन के अच्छर सुबेस । गजमोतिन की माला बिमाल । ___ मन मानहुँ सतन के मराल ॥१६९।। [विशेषक छद] स्याम दुवौ पग लाल लसै द्युति यों तल की। - मानहुँ सेवति ज्योति-- गिरा , यमुनाजल की। पाट जटी अति स्वेत से हीरन की अवली । - देवनदी कन मानहुँ सेवत भाँति भली ।।१७०।। [दो०] को बरनै रघुनाथ-छबि, कंसव बुद्धि उदार । जाकी किरपा सोभिजति, सोभा सब ससार ॥१७॥ सीता का रूप-वर्णन [दडक] ।। को है दमयती इदुमती रति, राति-दिन, होहिं न छबीली छवि इन जो सिंगारिए । il T