पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
( ४३ )

सुत मैं न जायो राम सो यह कह्यो पर्वतन दिनी । 'वह रेणुका तिय धन्य धरणी में भयी जगवदिनी' ।।१९९||

[तोमर छद]

परशुराम-सुनु राम सील-समुद्र । तव बधु हैं अति छुद्र । 17, मम वाडवानल कोप । अँगु कियो चाहत लोप ॥२०॥

[दोधक छ द]

शत्रुघ्न-हौ भृगुन द बली जग माहीं । राम बिदा करिए घर जाहीं। हौं तुमसौं फिरि युद्धहि मॉडौं। छत्रिय वश को वैर लै छाँडौं ॥२०१।।

[तोटक छ द]

यह बात सुनी भृगुनाथ जबै ।। कहि, “रामहि लै घर जाहु अबै॥ इन पै जग जीवत जो बचिहौं । रन हौं तुमसौं फिरिकै रचिहौं ॥२०२॥ [दो०] "निज अपराधी क्यों हतौं, गुरुअपराधी छाँड़ि। ___ताते कठिन कुठार अब, रामहिं सों रन माँड़ि ।।२०३।। अग्नि ने उसे, न सह सकने के कारण, गंगा में डाल दिया। वहाँ कुमार कार्तिकेय का जन्म हुआ। उनके छः मुख थे जिनसे वे छ कृत्तिकात्रों का दूध एक साथ पीते थे। शस्त्राभ्यास के समय इनकी परशुराम से होड हो गई जिसमे परशुराम ने इन्हें नीचा दिखलाया। (३) कहते हैं, तारकासुर का पुत्र अपने पिता का बदला लेने के लिये उठा तो परशुराम ही से उसका वध हो सका।