पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१२७

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रामस्वयंपर। मम पूजन हित भूमि पलारी। यह लखि हृदय संकभइभारी॥ रैन समय जब सयनहि कीन्हा । संकर मोहिस्वप्न अस दीन्हा॥ जो कोइ लेवै धनुप उठाई । साजै गुन खींचे परिआई। जो तोड़े कोदंड हमारा सुता दिह्यो तिहि बिनहि बिचारा. स्वप्न देखि जाग्यो मुनिराई । मम महिषी तब कह्यो वुझाई । होत खयंवर सो भव नाथा । आय आप मुहि कियो सनाथा ॥ तना कहत जनक नृप केरे। प्रतीहार दूरहि ते टेरे । महाराज भूपति सिरताजा । आवत अवध कुंवर रघुराजा निरखि राम मिथिलेस महीपै । किया प्रनाम सिधारि समोपै॥ (दोहा) राजत राजसमाज मधि कोसलराज-किसोर । मुंदर स्यामल गौर तनु विश्व विलोचन चौर ॥ ६५२ ॥ (छंद हरिगीतिका) मुनिपदकमल सिरनाय दिय बैठाय दोनों भाय। पुनि कहो कौशिक सों जनक सब रंगभूमि दिखाय ॥ करिकै प्रनाम मुनीस को नृप बैठ आसन जाय । शासन दियो सब सचिवगन भट प्रबल विपुल वुलाय || ल्यावहु सरासन संभु को तर धरहु विसद बितान। सीता करे पूजन सबिधि नहिं होइ मान विधान ॥५३॥ (चौपाई) . जय महेस. बोले जन जयहीं। चली धनुष-मंजूषा तवहीं । महामल , जे पंच हजारा। लै गवने जन और अपारा