पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१३०

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११४ रामस्वयंवर। आसन को गवने गमे लचार। कोटिन कुलिस सों पुरारि को पिनाक आज तोरि रघुराज सियव्या विनहीं विचार ॥६६॥ (छंद तोटक) . सुनिकै मिथिलेस महामन को । नृप मोद भरे धनु तोरन को। भुजदंड उमेठि उठे तुरित । धनु कोन गुनै गुरुता गिरित ॥ विनमें कोउ मल्ल महीप रह्यो । द्रुत जाय मंजूपहि पानि गह्यो। करिजोर महा अति सोरकियो। मनुखोलिसरासन ऐंचि लियो। गिरिगो मुंह के भर भूमि तहाँ । चलि चैठ पराय लजाय महा । कोउ देखि महीप मंजूपडरयोनिहिं जोयसक्योलहिलाज फिस्यो। सिव-भक रहे महिनायक जे । भव रूप लखे भवमायक जे. हरि के जन जे र ज्ञान भरे । माह में सिरदै परणाम करे ६६८ (छंद तोमर) भे कोपवान महीप । जुरि खड़े धनुप समीप ॥ दस सहस भूप बलीन । धनुभंग महँ लबलोन ॥ नहिं सकत धनुप निकारि । मंजूय कर पट टारि ॥ तह भूप दसह हजार | गे तिमिटि सब इक बार ॥ मंजूप खोलन लाग । तनु जोर अतिसय जाग ॥ - नहि हिलत सोमंजूय । जिमि मटनि मूरो रूप ॥६६६॥ (सवैया) ज्यों ज्यों करें नरनायक जोर ह पुनि यातन वैठहिं आई । , स्वेद मरे मुख हारे हिये वल पौरुष कीरति देव गमाई ॥