पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१९५

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रामस्वयंवर । १७६ अवध तजे बोते अनेक दिन मिथिला बलरा तुम्हारे । सुवन-विवाह भये मंगलजुन श्रीपति विधन निवारे ॥ भूमि खंड नव को अखंड कारज नरेश तुब हाथा। ताते अव पशु धारि अवध को कीजै प्रजा सनाथा ॥१०६॥ सुनि वशिष्ठ के बचन चक्रवर्ती नरेश मुख गायो। सकल सत्य जो नाथ कहो तुम हमरा मन यह आयो। पैघिदेह के नेह विवस नहिं माँगत बनत बिदाई। प्रीति रीति करि जीत लियो मुहि बिछुरन अति दुखदाई। जो विदेह करिकै मन साहल सुना बिदा करि दे। तौ हम पुत्रवधू पुत्रन लै अवध नगर चलि देवें॥ यतना कहत भूए के ऑखिन आँतुन बहे पनारे । मुनिवर कन्यो विदेह जोग यहि तुम जिहि भांति उचारे । शति सनातन व्याह अंत में होती गुता विदाई । मर्यादा ते अधिक रहे इत लहि सस्कार महाई।। ताते चलघु अवधपुर भूपति अब परछन सुख लूटो। पुत्रवधू अरु पुत्र राखि घर और काज महँ जुटो ॥१०॥ शतानंद उत जाय जनक पहँ लै इकांत मिथिलेसै। बहो शांत अतिदांत बचनवर सहित ज्ञान उपदेसै। मंगलमय सब भयो विघ्न चिन व्याह उछाह अपारा। करत परातहि विते बहुत दिन नित नितनव-सत्कारा॥११०॥ अधिक प्रमान ते बरात अव राख्यो इत मिथिलेस् । चलन चहत अब अवध अवधपति सकुचत कहत कलेसू॥