पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२०२

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रामस्वयंवर। (दोहा) जस तस कै धरि धीर कछु. चल्यो बिकल कुशकेत । लक्ष्मीनिधि के चरन मह, गिरी सीय चिन चेत ॥१५॥ (चौपाई) कहि भैया सिय रोवन लोगो को अल जिहि न धीरताभागी॥ कढ़ति न मुख लक्ष्मी निधिवाता। सीय सनेह सिथिल सवगातार जस तस कै धरि धीर सुनैना । अवसर उचित कहे अस वैना। तह कुशकेतु भूप की रानी । कहत वुझाय परम प्रिय बोनी।। जनि मानहु दुख मनहिं कुमारी । लेहु लनातन रीति विचारो। यहि विधिवत प्रबोधहि वानी। बहत जात नयनन सों पानी।। होत विदा सिय धीरज भागा। प्रगन्यो प्रजा परमअनुरागा। सिविका आनि रत्नमय चारो। दिय चढ़ाय चारिहू कुमारी ।। चलत पालकी नगर मझारी । फोन्ही प्रजा कुलाहल भारी !! यहि विधि लिय बरात मह आई । बजे मुरज दुदुमि सहनाई।। आवत जानि विदेह नहीपा । रुके अवधपति नगर समीपा ।। अवधनाथ तह सहित कुमारा। मिले कछुक चलि प्रेम अपारा, (दोहा) रघुनंदन वंदन कियो, जनक लिया उर लाय। प्रीतिरीतितिहि काल की, बरनि कौनि विधिजाय॥१६२ राम बंधु जुत अवधपति, सकल बराती लोग। जनक सुजस बरनत चले है गोदुसह वियोग ।।१६३ ।।