पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२२३

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रामस्वयंबर। २०७ ये नववधू, विदेह-दुलारी | नयन पलक सम करि रखवारी॥ पृथक पृथक दुलहिन ले जाई । निज निज भवन देहु मैठाई ॥ ते महलन महं राजकुमारी। निवलत भई लहत सुख भारी। भूप सयनहित भवन सिंधारे । गावन हित गायक पशु धारे॥ चारि दंड निसि रहिगै,बाकी । लालसिखा धुनि भयःसुख छाकी॥ उठ्यो भूप सुमिरत भगवाना। रघुपति दरलन को ललचाना ॥ तिहिं अवसर नप दूत पठाई । लियो चारिहू कुँवर चुलाई ।। गये पिता ढिग कियो प्रणामा। पितु आशिष दैहि मुद्धामा भरत का काश्मीर गमन (दोहा) आनँद मंगल भाँति यहि रहत अवध मह रोज । उदित राम अभिराम रवि विकसित प्रजासरोज ॥२६॥ (छंद चौबोला) एक समय दशरथ नरनायक बैठयो सभा मझारी। भाइन भृत्यन सचिव महीसुर संजुत सकल सुखारी॥ गुरु वशिष्ठ तिहि अवसर आये उठी समाज निहारी। भूपत्ति चलि लीन्ह्यों कीन्ह्यो नति अपना नाम उचारी ॥२६॥ सिंहासनासीन करि गुरु को विनय कियो अवधेला। तुम्हरी कृपा नाथ पार्यो सुन मिटिगोसनल कलेसा ।। कन्यो वशिष्ठ भूप तेरे सम रवि ते लगि अरु भाजू।