पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२३१

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रामस्वयंवर।

रामस्वयंवर। (दोहा) होत राम जुबराज पद, भरिनो भुवन उछाह । और सवै मोदित भये दुखो भये सुरनाह ॥ ३५७ ॥ कैकेयी की दालिका रहो मंथरा नाम । धूम धाम सुनिनगर मह चली विलोकन काम ॥ ३५ ॥ राम-वनगमन (छंद चौवाला) चढ़ी उतंग चंद्रसाला मह लखी अजेोध्या नगरी। पूरित फूलन गली बजारहु सींची सौरभ सिगरी । भवन अलंकृत ध्वजा पताके फहरि रहे चहुँ ओरा। खैरभैर मचि रह्यो नगर मह सुर पूजन सब ठोरा ||३५६॥ रघुपति के धात्री ते पूछो कहा हात पुर माहीं? राम-जननि रानी कौशल्या देति वित्त सव काहीं? कह्यो राम धात्री न सुने ते होत राम जुवराजू । करत कालिद अभिषेक भूपमान सौंपर सिगरी राजू ॥३६०॥ सुनि पापिनि मंथरा दुखित है गई कैकयी नेरे। तिहि जगाय अस कह्यो वैठि कस पर न लखि द्वग हेरे ? केकै देस पछै भरतहि नृप करहिं राम जुबराजू । हँगो सकल सुहाग भंग तुव भइ चेरी सम आजू ॥ ३६१ ।। सुनत कैकयी कह व्याकुल है दे भनुमति कछु मोहीं। कह मंथरा भूप दीन्यो दुइ घर पूरब जो तोही।