पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२५२

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२३६
रामस्वयंवर।

२३६ रामस्वयंवर! डंका दियो दिवाय दशानन लंका महँ चहुँ ओरा । निशिचरराज आज रन गवनत सजे वीर सुनि शोरा ।। राक्षसनाह सनाह पहिरि तनु चल्यो वजाय नगारा। महावीर सव चले संग मह निकस्यो उत्तर द्वारा ॥४८॥ महा सैन्य आवत लखि रघुपति कह्यो विभीषण पाहीं ।। सखा कौन आवत निशिचरवर जानि परत कछु नाहीं॥ कहो विभीषण सुनहुँ, नाथ यह आवत रावण राजा। यह महेद-बल-दर्प-विदारक जाहि डरत यमराजा |Hell उत रावण वोल्यो चीरन सो ताकहु लंका जाई । मैं अकेल लरिहौं कपिदल सो मानहु मोरि दुहाई ।। अस कहि सचमुकरायभटन को धस्यो कीस दल एका। मारत वान दशानन कोपित किय विन प्रान अनेका ॥१८॥ भगे कीस सब चले पुकारत रक्ष रघुकुलनाथा । महाबली दल वलीमुखन को नास करत दशमाथा ॥ आरत वचने सुनत करुनाकर मृगपति गति रघुराऊ । कहो राम लरियो बचाय तनु छली निशाचरराऊ ॥४॥ . . .(दोहा) रामानुज कोदंड लै, वली वांकुरो वीर । ', ललकारयो दशकंठ को, गिरामेव गंभीर ॥ ४८२ ।। (चौपाई) रे रावण कपि छुद्रन काहीं। मारे तुहिं जंग में जस नाहीं ॥ चलो आउ अव सन्मुख मेरे । दरसावै, वल जो कछु तेरे ॥