पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/४६

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रामस्वयंवर . -२६ कोउतुरंग चढ़ि कोउ मतंग चढ़ि कोउ साँगचढ़ि आये। अति उछाह नरनाह भरे सव संपति विपुल लुटाये ॥ जिनके धन नहिं ते पट आयुध देत लुटाइ उछाही । जे लूटत तेउ तुरत लुटावत कोउ न भये धनग्राही ॥१६०॥ द्वारे द्वार बजत नगारे घनकारे घहरारे। बिपुल किता के विविध पताके चपला के छबिहारे ॥ तोरन मनहु इंद्रधनु सोहत मोर कूक सहनाई। घरपत आनंद आँसु अबु सोइ अवध प्रजा समुदाई ॥१६॥ विविध रंग अंबर कंसर कसि विविध रंग सिर पागे । विविध रंग तेह कुसुम विराजत अंगराग सुख रागे॥ विविध सुगंधित अनिल वहत तह जनसमूह बस मंदा । छ्वै सरजू शीतल अति आवत परसत परम अनंदा ॥१६॥ बहु मुरचंग मृदंग सरंग उपंग सुसलिल तरंगा। धाजत रंगभूमि रस रंगनि, तेइ मनु बदत विहंगा॥ नर्तक नवत मयूर मनहु बहु भवन कुज छवि छाये। सोहर मंजु पुंज सुख को अति भौरन गुज साहाये ॥१६३॥ द्वान अखंड अमल अंबर सम कीरतिकर दिसि छाजै। उडुमंडल द्विजमंडल सोहत तिमि वशिष्ठ द्विजराजै ।। राजराज रघुराज तनय सुख उदय देखि कृतकाजा । मानहु सकल समाज जारिकै मिलन चल्यो ऋतुराजा ॥१६॥ निर्मल अवध जलाकर सोहत विकसत हित जलजाता। फटिक अटा ते सरद घटा.मनु कोक वृंद बुध ख्याता ॥