पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/६७

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रामवयंबर-1 ". (कवित्त.) नृप बतरात-जात मंद मुसक्यात जात, मंद मंद खात जात आनंद विचारिकै । निरखि कुमार सब छोड़ि छोड़ि थार निज, बैठे पितु भाजन के निकट सिधारिकै ॥ भनै रघुराज जालों सानै नृप व्यंजन लै,बचन बखान बहु जुक्तिन उचारिक। तौलों खाय लेत साना व्यंजन को चारों नंद, हंसत नरेंद्र खाली थाली को निहारिकै ॥ २७॥ . ... . । (छंद चै.वोला) ... " भोजन करत एक व्यंजन जो सो तीनों सुत लेहीं। जो वारत ताते पुनि झगरत जो न देत तेहिं देहीं । कतहुँ कतहुं झगरत चारिहु सुत.भूपति रारि पचा। कोउ काहु के उपर डारि कठु अवनिप अंकहि आवै ॥२७॥ फरि भोजन नृप सहित कुमारन गवने अँचवन हेतू । अँचै सयन के अयन सिधारे चैन भरे नृपकेतु ॥ धात्री सकल कुमारत को तहं जननि निकट ले आई। चीरी चदन खवाइ सयन महं पाइ पलोटि सोवाई ॥२७॥ व्रतबंध। यहि विधि लीला करत अनेकन देत मेदि पितु माते। विहरत-अवध नगर रघुनंदन सहित तीनहूं भ्रातै ॥