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दूसरा अङ्क

८५

छोड़ काज अरु लाज जगतको
निश दिन ध्यान लगावनकी॥मुझे लगन०॥
सुरत उजाली खुल गई ताली
गगन महलमें जावनकी॥मुझे०॥
झिल मिल कारी जोति निहारी
जैसे बिजली सावनकी
मुझे लगन लगी प्रभु पावनकी।

बेटी! तुम हलधरका सपना तो नहीं देखती हो?

राजे०--बहुत बुरे-बुरे सपने देखती हूँ। इसी डरके मारे तो मैं और नहीं सोती। आंख झपकी और सपने दिखाई देने लगे।

सलोनी--कलसे तुल्सा माताको दिया चढ़ा दिया करो। पतवार मंगलको पीपलमें पानी दे दिया करो। महाबीर सामीको लड्डूकी मनौती कर दो। कौन जाने देवताओं के प्रतापसे लौट आवे। अच्छा अब महाबीरजीका नाम लेकर सो जाव। रात बहुत गई है। दो घरीमें भोर जो जायगा।

(सलोनी करवट बदलकर सोती है और खर्राटे भरने लगती है।)

राजे०--(आप ही आप) बुढ़िया सो रही है, अब मैं चलनेकी तैयारी करूं। छत्री लोग रनपर जाते थे तो खूब सज कर जाते थे। मैं भी कपड़े लत्ते से लैस हो जाऊं। वह पांचों हथियार लगाते थे। मेरे हथियार मेरे गहने हैं। वही पहन लेती