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संग्राम

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हूँ। वह केसरका तिलक लगाते थे। मैं सिन्दूरका टीका लगा लेती हूँ। वह मलिच्छोंका संहार करने जाते थे मुझे देवताका संहार करना है। भगवती तुम मेरी सहाय हो।............ लेकिन छत्री लोग तो हँसते हुए घरसे विदा होते थे। मेरी आँखों में आंसू भरे आते हैं। आज यह घर छूटता है! इसे सातवें दिन लीपती थी, त्यौहारोंपर पोतनी मिट्टीसे पोतती थी। वैसी उमंगसे आँगनमें फुलवारी लगाती थी। अब कौन इनकी इतनी सेवा करेगा। दो ही चार दिनों में यहां भूतोंका डेरा हो जायगा। हो जाय! जब घरका प्राणी ही नहीं रहा तो घर लेकर क्या करूँ? आह, पैर बाहर नहीं निकलते; जैसे दीवारें खींच रही हो। इनसे गले मिल लूँ।

गाय भैंस कितने साधसे ली थी। अब इनसे भी नाता टूटता है। दोनों गाभिन हैं। इनके बच्चोंको भी न खेलाने पाई। बिचारी हुड़क-हुड़क कर मर जायगीं! कौन इन्हें मुँह अँधेरे भूसा खली देगा, कौन इन्हें तालाब में नहलायेगा। दोनों मुझे देखते ही खड़ी हो गईं। मेरी ओर मुँह बढ़ा रही हैं, पूछ रही हैं कि आज कहांकी तैयारी है। हाय! कैसे प्रेमसे मेरे हाथोंको चाट रही हैं! इनकी आँखोंमें कितना प्यार है! आओ आज चलते चलाते तुम्हें अपने हाथोंसे दाना खिला दूँ! हा भगवान, दाना नहीं खाती, मेरी ओर मुँह करके ताकती हैं। समझ रही हैं कि यह इस