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दूसरा अङ्क

८७

तरह बहला कर हमें छोड़े जाती है। इनके पाससे कैसे जाऊँ? रस्सी तुड़ा रही हैं, हुँकार मार रही हैं। वह देखो, बैल भी उठ बैठे। वह गये, इन विचारों की सेवा न हो सकी। वह इन्हें घंटों सुहलाया करते थे। लोग कहते हैं तुम्हें आनेवाली बातें मालुम हो जाती हैं। कुछ तुम ही बताओ वह कहाँ हैं, कैसे हैं, कब आयँगे? क्या अब कभी उनकी सुरत देखनी न नसीब होगी। ऐसा जान पड़ता है इनकी आँखोंमें आँसू भरे हैं। जाओ, अब तुम सभोंको भगवानके भरोसे छोड़ती हूँ। गांववालोंको दया आवेगी तुम्हारी सुधि लेंगे, नहीं तो यहीं भूखे खड़ी रहोगी। फत्तू मियाँ तुम्हारी सेवा करेंगे। उनके रहते तुम्हें कोई कष्ट न होगा। यह दो आँखें भी न करेंगे कि अपने बैलोंको दाना और खली दें, तुम्हारे सामने सूखा भूसा डाल दें। लो अब विदा होती हूँ। भोर हो रहा है, तारे मद्धिम पड़ने लगे। चलो मन, इस रोने बिसूरनेसे काम न चलेगा। अब तो मैं हूँ और प्रेम-कौशलका रजछेत्र है। भगवतीका और उनसे भी अधिक अपनी दृढ़ताका भरोसा है।