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दूसरा अङ्क

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अपने प्रतिनिधि कितनी ही सावधानीसे क्यों न चुने पर अन्तमें सत्ता गिने गिनाये आदमियोंके ही हाथों में चली जाती है। सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था ही ऐसी दूषित है कि जनताका अधिकांश मुट्ठीभर आदमियों के वशवर्ती हो गया है। जनता इतनी निबल, इतनी अशक्त है कि इन शक्तिशाली पुरुषों के सामने सिर नहीं उठा सकती। यह व्यवस्था सर्वथा अपवादमय, विनष्टकारी और अत्याचार पूर्ण है। आदर्श व्यवस्था यह है कि सबके अधिकार बराबर हों, कोई जमींदार बनकर, कोई महाजन बनकर जनतापर रोब न जमा सके। यह ऊँच नीचका घृणित भेद उठ जाय। इस सबल निबल संग्राम में जनताकी दशा बिगड़ती चली जाती है। इसका सबसे भयङ्कर परिणाम यह है कि जनता आत्मसम्मान विहीन होती जाती है, उसमें प्रलोभनोंका प्रतिकार करने, अन्यायका सिर कुचलनेका सामर्थ नहीं रहा। छोटे छोटे स्वार्थके लिये बहुधा भयवश, कैसे-कैसे अनर्थ हो रहे हैं। (मनमें) कितनी यथार्थ बात लिखी है। आज ऐसा कोई असामी नहीं है जिसके घर में मैं अपने दुष्टाचरणका तीर न चला सकूँ। मैं कानूनके बलसे, भयके बलसे, प्रलोभनके बलसे, अपना अभीष्ट पूरा कर सकता हूँ। अपनी शक्तिका ज्ञान हमारे दुस्साहसको, कुभावोंको और भी उत्तेजित कर देता है। खैर! हलधर को जेल गये हुए आज