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संग्राम

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सबल--क्या कहूँ, मेरी हिमाक़तसे तुम्हें इतनी तक़लीफ हुई, बहुत लज्जित हूं। कई दिनसे आनेका इरादा करता था पर किसी न किसी कारणसे रुक जाना पड़ता था। बरफ़ आती होगी, एक ग्लास शर्बत पीलो तो यह गरमी दूर हो जाय।

राजेश्वरी--आपकी कृपा है मैंने बरफ़ कभी नहीं पी है। आप जानते हैं मैं यहां क्या करने आई हूँ?

सबल--दर्शन देने के लिये।

राजे०--जी नहीं, मैं ऐमी निस्वार्थ नहीं हूं। आई हूँ आपके घरमें रहने; आपका प्रेम खींच लाया है। जिस रस्सीमें बंधी हुई थी वह टूट गई। उनका आज दस ग्यारह दिनसे कुछ पता नहीं है। मालूम होता है कहीं देस-विदेस भाग गये। फिर मैं किसकी होकर रहती। सब छोड़-छाड़ कर आपकी सरन आई हूं, और सदाके लिये। उस ऊजाड़ गांवसे जी भर गया।

सबल--तुम्हारा घर है, आनन्दसे रहो। धन्य भाग कि मुझे आज यह अवसर मिला। मैं इतना भाग्यवान हूँ, मुझे इसका विश्वास ही न था। मेरी तो यह हालत हो रही है।

हमारे घरमें वह आयें खुदाकी कुद्रत है।
कभी हम उनको कभी अपने घरको देखते हैं।

ऐसा बौखला गया हूँ कि कुछ समझमें ही नहीं आता