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संग्राम

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राजे०--मुझे इसकी कुछ परवाह नहीं है। आपको वहां नित्य आना होगा। आपको क्या मालूम है कि यहाँ किस तरह तड़प-तड़पकर दिन काटती हूं।

सबल--राजेश्वरी, मैं अपनी दशा कैसे दर्शाऊँ। बस यही समझ लो जैसे पानी बिना मछली तड़पती हो। न सैर करनेका जी चाहता है न घरसे निकलने का, न किसीसे मिलने-जुलने का, यहाँतक कि साइनेमा देखने को भी जो नहीं चाहता। जब यहाँ आने लगता हूं तो ऐमी प्रबल उत्कण्ठा होती है कि उड़कर आ पहुँचूँ। जब यहाँसे चलता हूं तो ऐसा जान पड़ता है कि मुकदमा हार आया हूं। राजेश्वरी, पहले मेरी केवल यही इच्छा थी कि तुम्हें आँखोंसे देखता रहूँ, तुम्हारी मधुर वाणी सुनता रहूँ। तुम्हें अपनी देवी बनाकर पूजना चाहता था पर जैसे ज्वरमें जलसे तृप्ति नहीं होती, जैसे नई सभ्यतामें विलासकी वस्तुओंसे तृप्ति नहीं होती, वैसे ही प्रेमका भी हाल है; वह सर्वस्व देना और सर्वस्व लेना चाहता है। इतना यत्न करनेपर भी घरके लोग मुझे चिन्तित नेत्रों मे देखने लगे हैं। उन्हें मेरे स्वभावमें कोई ऐसी बात नज़र आती है जो पहले नहीं आती थी। न जाने इसका क्या अंत होगा।

राजे०--इसका अन्त होगा वह मैं जानती हूँ और उसे जानते हुए मैंने इस मार्गपर पाँव रखा है। पर उन चिन्ताओंको