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संग्राम

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राजे०--यहां प्रेमकी शान्ति नहीं, प्रेमकी दाह है। जाइये। देखूं अब यह पहाड़ सा दिन कैसे कटता है। नींद भी जाने कहां भाग गई।

सबल--(छज्जेके जीनेसे लौटकर) प्रिये, गजब हो गया; वह देखो कंचनसिंह जा रहे हैं। उन्होंने मुझे यहांसे उतरते देख लिया। अब क्या करूँ?

राजे०--देख लिया तो क्या हरज हुआ। समझे होंगे आप किसी मित्रसे मिलने आये होंगे। जरा मैं भी उन्हें देख लूँ।

सबल--जिस बातका मुझे डर था वही हुआ। अवश्य ही उन्हें कुछ टोह लग गई है। नहीं तो इधर उनके आनेका कोई काम न था। यह तो उनके पूजा पाठ का समय है। इस वक्त कभी बाहर नहीं निकलते। हाँ गंगाम्नान करने जाते हैं, मगर घड़ी रात रहे। इधरसे कहाँ जायेंगे? घरवालोंको सन्देह हो गया।

राजे०--आपसे स्वरूप बहुत मिलता हुआ है। सुनहरी ऐनक खूब खिलती है।

सबल--अगर वह सिर झुकाये अपनी राह चले जाते तो मुझे शंका न होती पर वह इधर-उधर, नीचे-ऊपर इस भांति ताकते जाते थे जैसे शोहदे कोठोंकी ओर झांकते हैं। उनका स्वभाव नहीं है। बड़े ही धर्मज्ञ,सच्चरित्र,ईश्वरभक्त पुरुष हैं। संसार