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दूसरा अङ्क

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चार कौर भी न खाया जाता। मुँह जूठा करके उठ आती। रात दिन तुम्हारी ही चर्चा तुम्हारी ही बात किया करती थी। शोक और दुःखमें जीवनसे निरास होकर उसने चाहे प्राण दे दिये हों पर वह कुलको कलंक नहीं लगा सकती। बरम्हा भी आकर उसपर यह दोस लगायें तो मुझे उनपर विस्सस न आयेगा।

फत्तू--काकी, तुम तो उसके साथ सोती ही बैठती थीं, तुम जितना जानती हो उतना मैं कहाँसे जानूंगा, लेकिन इस गांवमें सत्तर वरसकी उमिर गुजर गई, सैकड़ों बहुएं आईं पर किसी में वह बात नहीं पाई जो इसमें है। न ताकना, न झांकना, सिर झुकाये अपनी राह जाना, अपनी राह आना। सचमुच ही देवी थी।

हलधर--काका, किसी तरह मनको समझाने तो दो। जब अंगूठी पानी में गिर गई तो यह सोचकर क्यों न मनको धीरज दूं कि उसका नग कच्चा था। हाय, अब इस घरमें पांव नहीं रखा जाता, ऐसा जान पड़ता है कि घरकी जान निकल गई।

सलोनी--जाते जाते घरको लीप गई है। देखो अनाज मटकोंमें रखकर इनका मुंह मिट्टीसे बन्द कर दिया है। यह घीकी हांडी है, लबालब भरी हुई, बिचारीने संघ कर रखा था। क्या कुल्टाएं गृहस्तीकी ओर इतना ध्यान देती हैं? एक तिनका