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दूसरा अङ्क

१२९

(चली जाती है, भृगु आता है।)

चम्पा--तुम मुझे मेरे घर क्यों नहीं पहुंचा देते, नहीं एक दिन कुछ खाकर सो रहूंगा तो पछतावोगे। टुकुर-टुकुर देखा करते हो पर मुंह नहीं खुलता कि अम्मा वह भी तो आदमी है, पांच सेर गेहूँ पीसना क्या दाल-भातका कौर है।

भृगु--तुम उसकी बातों का बुरा क्यों मानती हो। मुंह हीसे न बकती है कि और कुछ। समझ लो कुतिया भूंक रही है। दुधार गायकी लात भी सही जाती है। आज नौकरी करना छोड़ दें तो सारा गृहस्तीका बोझ मेरे ही सिर पड़ेगा कि और किसीके सिर। धीरज धरे कुछ दिन पड़ी रहो, चार थान गहने हो जायंगे, चार पैसे गांठमें हो जायंगे। इतनी मोटी बात भी नहीं समझती हो, झूठ-मूठ उलझ जाती हो।

चम्पा--मुझसे तो ताने सुनकर चुप नहीं रहा जाता। शरीरमें ज्वाला सी उठने लगती है।

भृगु--उठने दिया करो, उससे किसीके जलनेका डर नहीं है। बस उसकी बातोंका जवाब न दिया करो। इस कान सुना और उस कान उड़ा दिया।

चम्पा--सोनार कंठा कब देगा?

भृगु--दो तीन दिनमें देनेको कहा है। ऐसे सुन्दर दाने बनाये हैं कि देखकर खुश हो जावोगी। यह देखो......