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पहलादृश्य
(स्थान--कंचनसिहका कमरा, समय--दोपहर, खसकी टट्टी

लगी हुई है, कंचनसिह सीतलपाटी बिछाकर लेटे हुए हैं, पंखा

चल रहा है।)

कंचन--(आप ही आप) भाई साहबमें तो यह आदत कभी नहीं थी। इसमें अब लेशमात्र भी सन्देह नहीं है कि वह कोई अत्यन्त रूपवती स्त्री है। मैंने उसे छज्जे परसे झाँकते देखा था, भाई साहब आड़में छिप गये थे। अगर कुछ रहस्यकी बात न होती तो वह कदापि न छिपते, बल्कि मुझसे पूछते कहाँ जा रहे हो। मेरा माथा उसी वक्त ठनका था जब मैंने उन्हें नित्य प्रति बिना किसी कोचवानके अपने हाथों टमटम हांकते सैर करते जाते देखा। उनकी इस भांति घुमनेकी आदत न थी। आजकल कभी न क्लब जाते हैं न और किसीसे मिलते-जुलते हैं। पत्रोंसे भी रुचि नहीं जान पड़ती। सप्ताहमें एक न एक लेख अवश्य लिख लेते थे, पर इधर महीनोंसे एक पंक्ति भी कहीं नहीं लिखी। यह बुरा हुआ। जिस प्रकार बंधा हुआ पानी खुलता है तो