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संग्राम

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बड़े बेगसे बहने लगता है अथवा रुका हुआ वायु चलता है तो बहुत प्रचंड हो जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरुष जब विचलित होता है तो वह अविचारकी चरम सीमातक चला जाता है, न किसीकी सुनता है, न किसीके रोके रुकता है, न परिणाम सोचता है। उसकी विवेक और बुद्धिपर परदासा पड़ जाता है। कदाचित् भाई साहबको मालूम हो गया है कि मैंने उन्हें वहाँ देख लिया। इसीलिये वह मुझसे माल खरीदनेके लिये पंजाब जानेको कहते हैं। मुझे कुछ दिनोंके लिये हटा देना चाहते हैं। यही बात है, नहीं तो वह माल-वालकी इतनी चिन्ता कभी नहीं किया करते थे। मुझे तो अब कुशल नहीं दीखती। भाभीको कहीं खबर मिल गई तो वह प्राण ही दे देंगी। बड़े आश्चर्यकी बात है कि ऐसे-ऐसे विद्वान गम्भीर पुरुष भी इस मायाजालमें फंस जाते हैं। अगर मैंने अपनी आंखों न देखा होता तो भाई साहबके सम्बन्धमें कभी इस दुष्कल्पनाका विश्वास न आता।

(ज्ञानीका प्रवेश)

ज्ञानी--बाबूजी, आज सोये नहीं?

कंचन--नहीं, कुछ हिसाब-किताब देख रहा था। भाई साहबने लगान न मुआफ कर दिया होता तो अबकी मैं ठाकुरद्वारेमें जरूर हाथ लगा देता। असामियोंसे कुछ रुपये वसूल