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संग्राम

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रहता है। इसपर मन्त्र चलना कठिन है। कठिन हो सकता है पर असाध्य नहीं है। मैं तो कहती हूँ कठिन भी नहीं है। आदमी कुछ खोकर तब सीखता है। जिसने खोया ही नहीं वह क्या सीखेगा। मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। भगवानने यह रूप दिया था तो ऐसे पुरुषका संग क्यों दिया जो बिलकुल दूसरोंकी मुट्ठीमें था! यह उसीका फल है कि जिन सज्जनोंकी मुझे पूजा करनी चाहिये थी, आज मैं उनके खूनकी प्यासी हो रही हूँ। क्यों न खूनकी प्यासी होऊँ? देवता ही क्यों न हो जब अपना सर्वनाश कर दे तो उसकी पूजा क्यों करूं। यह दयावान हैं, धर्मात्मा हैं, गरीबों का हित करते हैं पर मेरा जीवन तो उन्होंने नष्ट कर दिया। दीन दुनिया कहींका न रखा। मेरे पीछे एक बिचारे भोले भाले, सीधे सादे आदमीके प्राणोंके घातक हो गये। कितने सुखसे जीवन कटता था। अपने घरमें रानी बनी हुई थी। मोटा खाती थी, मोटा पहनती थी पर गांव भरमें मरजाद तो थी। नहीं तो यहां इस तरह मुंहमें कालिख लगाये चोरों की तरह पड़ी हूं जैसे कोई कैदी काल-कोठरीमें बन्द हो। आगये कंचन सिंह, चलुं। (दीवानखानेमें आकर) देवरजीको प्रणाम करती हूँ।

कंचन—(चकित होकर) (मनमें) मैं न जानता था कि यह ऐसी सुन्दरी रमणी है। रम्भाके चित्रसे कितनी मिलती जुलती