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तीसरा अङ्क

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ज्ञानी—मैं कल आपके मना करनेपर भी स्वामी चेतन-दासके दर्शनोंको चली गई थी।

सबल—अकेले?

ज्ञानी—गुलाबी साथ थी।

सबल—(मनमें) क्या करे बिचारी किसी तरह मन तो बहलाये। मैंने एक तरह इससे मिलना ही छोड़ दिया। बैठे २ जी ऊब गया होगा। मेरी आज्ञा ऐसी कौन महत्वकी वस्तु है। जब नौकर चाकर जब चाहते हैं उसे भंग कर देते हैं और मैं उनका कुछ नहीं कर सकता तो इसपर क्यों गर्म पडूं। मैं खुली आँखों धर्म और नीतिको भङ्ग कर रहूंगा, ईश्वरीय आज्ञासे मुँह मोड़ रहा हूँ तो मुझे कोई अधिकार नहीं कि इसके साथ जरा सी बात के लिये सख्ती करूं। (प्रकट) यह कोई अपराध नहीं, और न मेरी आज्ञा इतनी अटल है कि भङ्ग ही न की जाय। अगर तुम इसे अपराध समझती हो तो मैं इसे सहर्ष क्षमा करता हूँ।

ज्ञानी—स्वामी,आपके बर्तावमें आजकल क्यों इतना अन्तर हो गया है। आपने क्यों मुझे बन्धनोंसे मुक्त कर दिया है, मुझ पर पहलेकी भांति शासन क्यों नहीं करते? नाराज क्यों नहीं होते, कटु शब्द क्यों नहीं कहते, पहलेकी भांति रूठते क्यों नहीं, डाँटते क्यों नहीं। आपकी यह सहिष्णुता देखकर मेरे अबोध