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संग्राम

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मनमें भांति भौतिकी शङ्काएं उठने लगती हैं कि यह प्रेम-बन्धन का ढीलापन न हो।

सबल—नहीं प्रिये, यह बात नहीं है, देश-देशान्तरोंके पत्र पत्रिकाओंको देखना हूँ तो वहाँकी स्त्रियोंकी स्वाधीनताके सामने यहांका कठोर शासन कुछ अच्छा नहीं लगता। अब स्त्रियाँ कौन्सिलोंमें जा सकती हैं, वकालत कर सकती हैं, यहांतक कि भारतमें भी स्त्रियोंको अन्यायके बन्धनोंसे मुक्त किया जा रहा है, तो क्या मैं ही सबसे गया बीता हूँ कि वही पुरानी लकीर पीटे जाऊँ।

ज्ञानी—मुझे तो उस राजनैतिक स्वाधीनताके सामने प्रेम बन्धन कहीं सुखकर जान पड़ता है। मैं वह स्वाधीनता नहीं चाहती।

सबल—(मनमें) भगवन्, इस अपार प्रेमका मैंने कितना घोर अपमान किया है? इस सरलहृदयाके साथ मैंने कितनी अनीतिकी है? आंखोंमें आंसू क्यों भरे आते हैं? मुझ जैसा कुटिल मनुष्य इस देवीके योग्य नहीं था। (प्रकट) प्रिये, तुम मेरी ओरसे लेशमात्र भी शङ्का न करो। मैं सदैव तुम्हारा हूँ और रहूंगा! इस समय गाना सुननेका जी चाहता है। वही अपना प्यारा गीत गाकर मुझे सुना दो।

ज्ञानी—(सरोद लाकर सबलसिंहको दे देती है) गाने