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तीसरा अङ्क

१६९

अपना तन, मन, धन सब धर्मपर अर्पण कर दिया था। दान और व्रतको ही मैंने जीवनका उद्देश्य समझ लिया था। उसका मुख्य कारण यह था कि मुझे प्रेमका कुछ अनुभव न था। मैंने उसका सरस स्वाद न पाया था। उसे केवल मायाकी एक कूटलीला समझा करता था, पर अब ज्ञात हो रहा है कि प्रेममें कितना पवित्र आनन्द और कितना स्वर्गीय सुख भरा हुआ है। इस सुखके सामने अब मुझे धर्म, मोक्ष और व्रत कुछ भी नहीं जंचते। उनका सुख भी चिन्तामय है, इसका दुःख भी रसमय।

राजे०—(वक नेत्रोंसे ताककर) यह सुख कहां प्राप्त हुआ?

कंचन—यह न बताऊंगा।

राजे०—(मुसकिरा कर) बताइये चाहे न बताइये, मैं समझ गई। जिस वस्तुको पाकर आप इतने मुग्ध हो गये हैं वह असलमें प्रेम नहीं है। प्रेमकी केवल झलक है। जिस दिन आपको प्रेमरत्न मिलेगा उस दिन आपको इस आनन्दका सच्चा अनुभव होगा।

कंचन—मैं यह रत्न पाने योग्य नहीं हूँ। वह आनन्द मेरे भाग्यमेंही नहीं है।

राजे०—है और मिलेगा। भाग्यसे इतने निराश न हूजिये। आप जिस दिन, जिस घड़ी, जिस पल इच्छा करेंगे यह रत्न