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तीसरा अङ्क

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कंचन—(मनमें) मन अब क्या कहते हो? क्षत्रियधर्मका पालन करके भाईसे लड़ोगे, उसके प्राणोंपर आघात करोगे या क्षत्रियधर्मको भंग करके आत्महत्या करोगे? जी तो मरनेको नहीं चाहता। अभीतक भक्ति और धर्मके जंजालमें पड़ा रहा, जीवनका कुछ सुख नहीं देखा। अब जब उसकी आशा हुई तो यह कठिन समस्या सामने आ खड़ी हुई। हो क्षत्रियधर्मके विरुद्घ, पर भाईसे मैं किसी भांति विग्रह नहीं कर सकता। उन्होंने सदैव मुझसे पुत्रवत् प्रेम किया है। याद नहीं आता कि कोई अमृदु शब्द उनके मुंहसे सुना हो। वह योग्य हैं, विद्वान हैं, कुशल हैं, मेरे हाथ उनपर नहीं उठ सकते। अवसर न मिलने की बात नहीं है। भैयाका शत्रु मैं हो ही नहीं सकता। क्षत्रियों के ऐसे धर्मसिद्धान्त न होते तो जरा जरासी बातपर खून की नदियां क्योंकर बहतीं और भारत क्यों हाथसे जाता? नहीं कदापि नहीं, मेरे हाथ उनपर नहीं उठ सकते। साधुगण झूठ नहीं बोलते, पर यह महात्माजी उनपर भी मिथ्या दोषारोपण कर गये। मुझे विश्वास नहीं आता कि वह मुझपर इतने निर्दय हो जायेंगे। उनके दया और शीलका पारावार नहीं। वह मेरी प्राणहत्याका संकेत नहीं दे सकते। एक नहीं, हजार राजेश्वरियां हों पर भैया मेरे शत्रु नहीं हो सकते। यह सब मिथ्या है। मेरे हाथ उनपर नहीं उठ सकते।