पृष्ठ:संग्राम.pdf/२१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
तीसरा अङ्क

१९३

घूमने जाता हूं, न कोई उत्तम वस्तु भोजनको मिलती है। जो लोग लिखने-पढ़नेका काम करते हैं उन्हें दूध, मक्खन, मलाई, मेवा, मिस्री इच्छानुकूल मिलनी चाहिये। रोटी दाल चावल तो मजूरोंका भोजन है। सांझ-सवेरे वायुसेवन करना चाहिये। कभी २ थियेटर देखकर मन बहलाना चाहिये। पर यहाँ इनमेंसे कोई भी सुख नहीं। यही होगा कि सूखते २ एक दिन जानसे चला जाऊँगा।

गुलाबी—ऐ नौज बेटा, कैसी बात मुँहसे निकालते हो। मेरे जानमें तो कुछ फेरफार है। इस चुड़ैलने तुम्हें कुछ कर करा दिया है। यह पक्की टोनिहारी है। पूरबकी न है। वहाँको सब लड़कियाँ टोनिहारी होती हैं।

भृगु—कौन जाने यही बात हो। कंचन सिंहके कमरे में अकेले बैठता हूँ तो ऐसा डर लगता है जैसे कोई बैठा हो। रातको आने लगता हूँ तो फाटफपर मौलसरीके पेड़ के नीचे किसीको खड़ा देखता हूँ। कलेजा थर-थर काँपने लगता है। किसी तरह चित्तको ढाढ़स देता हुआ चला आता हूं। लोग कहते हैं पहले वहाँ किसीकी कबर थी।

गुलाबी—मैं स्वामीजीके पाससे यह जन्तर लाई हूँ। इसे गलेमें बाँध लो। शंका मिट जायगी। और कलसे अपने लिये पावभर दूध भी लाया करो। मैंने खूबा अहीरसे कहा है। उस-

१३