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संग्राम

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हैं, उसीका इसे घमंड है। किसी तरह रुपये निकल जाते तो यह गाय हो जाती।

चम्पा—तबतक तो यह मेरा कचूमर ही निकाल लेंगी।

भृगु—सबरका फल मीठा होता है।

चम्पा—इस घरमें अब मेरा निवाह न होगा। इस बुढ़ियाको देखकर आँखोंमें खून उतर आता है।

भृगु—अबकी एक गहरी रकम हाथ लगनेवाली है। एक ठाकुरने कानोंकी बाली हमारे यहाँ गिरों रखी थी। वादेके दिन टल गये। ठाकुर का कहीं पता नहीं। पूरब गया था। न जाने मर गया या क्या। मैंने सोचा है तुम्हारे पास जो गिन्नी रखी है उसमें चार-पाँच रुपये और मिलाकर बाली छुड़ा लूँ। ठाकुर लौटेगा तो देखा जायगा। ५०)से कमका माल नहीं है।

चम्पा—सच!

भृगु—हाँ, अभी तौले आता हूं। पूरे दो तोले हैं।

चम्पा—तो कब ला दोगे?

भृगु—कल लो। वह तो अपने हाथका खेल है। आज दालमें नमक क्यों ज्यादा हुआ।

चम्पा—सुबह कहने लगीं खानेमें नमक ही नहीं है। मैंने इस बेला नमक पीसकर उनकी थालीमें ऊपरसे डाल दिया कि खाओ खूब जी भरके। वह एक न एक खुचुड़ निकालती रहती