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चौथा अङ्क

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विषकी गाठ हूं। मैंने ईर्षाके वश होकर............यह अनर्थ किया है। ज्ञानी मैं पापी हूँ, राक्षस हूं, मेरे हाथ अपने भाईके खूनसे रंगे हुए हैं, मेरे सिरपर भाईका खून सवार है। मेरी आत्माकी जगह अब केवल कालिमाकी रेखा है! हृदयके स्थानपर केवल पैशाचिक निर्दयता। मैंने तुम्हारे साथ दगाकी है। तुम और सारा संसार मुझे एक विचारशील, उदार पुण्यात्मा पुरुष समझते थे, पर मैं महान पापी, नराधम, धूर्त हूँ। मैंने अपने असली स्वरूपको सदैव तुमसे छिपाया। देवताके रूपमें मैं राक्षस था। मैं तुम्हारा पति बनने योग्य न था। मैंने एक पतिपरायण स्त्रीको कपटचालोंसे निकाला, उसे लाकर शहर में रखा। कंचन सिंहको भी मैंने वहाँ दो तीन बार बैठे देखा। बस! उसी क्षणसे मैं ईर्षाको आगमें जलने लगा और अन्तमें मैंने एक हत्यारेके हाथों......रोकर भैयाको कैसे पाऊँ? ज्ञानी, इन तिरस्कारके नेत्रोंसे न देखो। मैं ईश्वरसे कहता हूं तुम कल मेरा मुंह न देखोगी। मैं अपनी आत्माको कलुषित करने के लिये अब और नहीं जीना चाहता। मैं अपने पापोंका प्रायश्चित एक ही दिनमें समाप्त कर दूंगा। मैंने तुम्हारे साथ दगा की, क्षमा करना।

ज्ञानी—(मनमें) भगवन् पुरुष इतने ईर्षालु, इतने विश्वासघाती, इतने क्रूर, वज्रहृदय, होते हैं! आह! अगर मैंने स्वामी चेतनदास की बातपर विश्वास किया होता तो यह नौबत न