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संग्राम

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आने पाती। पर मैंने तो उनकी बातोंपर ध्यान ही नहीं दिया। यह उसी अश्रद्धाका दण्ड है। (प्रगट) मैं आपको इससे ज्यादा विचारशील समझती थी। किसी दूसरेके मुँहसे यह बातें सुनकर मैं कभी विश्वास न करती।

सबल—ज्ञानी मुझे सच्चे दिलसे क्षमा करो। मैं स्वयं इतना दुखी हूं कि उसपर एक जौका बोझ भी मेरी कमर तोड़ देगा। मेरी बुद्धि इस समय भ्रष्ट हो गई है। न जाने क्या कर बैठूं। मैं आपेमें नहीं हूँ। तरह-तरहके आवेग मनमें उठते हैं। मुझमें उनको दबाने का सामर्थ नहीं है। कंचनके नामसे एक धर्मशाला और ठाकुरद्वारा अवश्य बनवाना। मैं तुमसे यह अनुरोध करता हूं। यह मेरी अन्तिम प्रार्थना है। विधाताकी यह वीभत्स लीला, यह पैशाचिक तांडव जल्द समाप्त होनेवाला है। कचनकी यही जीवन-लालसा थी। इन्हीं लालसाओंपर उसने जीवनके सब आनन्दों, सभी पार्थिव सुखोंको अर्पण कर दिया था। अपनी लालसाओं को पूरा होते देखकर उसकी आत्मा प्रसन्न होगी और इस कुटिल निर्दय आघातको क्षमा कर देगी।

(अचलसिंहका प्रवेश)

ज्ञानी—(आंखें पोंछकर) बेटा, क्या अभी तुमने भी भोजन नहीं किया?

अचल—अभी चचाजी तो आये ही नहीं। आज उनके