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दूसरा दृश्य

(सबलसिंह अपने सजे हुए दीवानखानेमें उदास बैठे हैं।
हाथमें एक समाचारपत्र है, पर उनकी आँखें
दरवाजेके सामने बाग़की तरफ
लगी हुई है।)

सबलसिंह––(आप ही आप) देहातमें पंचायतोंका होना ज़रूरी है। सरकारी अदालतों का खर्च इतना बढ़ गया है कि कोई गरीब आदमी वहाँ न्यायके लिये जा ही नहीं सकता। जरासी भी कोई बात कहनी हो तो स्टाम्पके बग़ैर काम नहीं चल सकता।......उसका कितना सुडौल शरीर है, ऐसा जान पड़ता है कि एक एक अंग साँचे में ढला है। रंग कितना प्यारा है, न इतना गोरा कि आंखोंको बुरा लगे, न इतना सांवला.........होगा मुझे इससे क्या मतलब। वह पराई स्त्री है, मुझे उसके रूपलावण्यसे क्या वास्ता। संसारमें एकसे एक सुन्दर स्त्रियां हैं, कुछ यही एक थोड़ी है! ज्ञानी उससे किसी बातमें