पृष्ठ:संग्राम.pdf/२४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

चौथा अङ्क

२२९

ज्ञानी—महाराज मैं अपना तन मन धन सब आपके चरणों पर अर्पण करती हूँ।

चेतन—शिष्यका अपने गुरूके साथ आत्मिक सम्बन्ध होता है। उसके और सभी सम्बन्ध पार्थिव होते हैं। आत्मिक सम्बन्धके सामने पार्थिव सम्बन्धोंका कुछ भी मूल्य नहीं होता। मोक्षके सामने सांसारिक सुखोंका कुछ भी मूल्य नहीं है। मोक्षपद-प्राप्ति ही मानव जीवनका उद्देश्य है। इसी उद्देश्यको पूरा करनेके लिये प्राणीको ममत्वका त्याग करना चाहिये। पिता, माता, पति, पत्नी, पुत्र, पुत्री, शत्रु, मित्र यह सभी सम्बन्ध पार्थिव हैं। यह सब मोक्षमार्गकी बाधाएं हैं। इनसे निवृत्त होकर ही मोक्षपद प्राप्त हो सकता है। केवल गुरूकी कृपादृष्टि ही उस महान पदपर पहुँचा सकती है। तू अभीतक भ्रांतिमें पड़ी हुई है। तू अपने पति और पुत्र, धन और सम्पत्तिकोही जीवन सर्वस्व समझ रही है। यही भ्रांति तेरे दुख और शोकका मूल कारण है। जिस दिन तुझे इस भ्रांतिसे निवृत्ति होगी उसी दिन तुझे मोक्षमार्ग दिखाई देने लगेगा। तब इन सांसारिक सुखोंसे तेरा मन आप ही आप हट जायगा। तुझे इनकी असारता प्रगट होने लगेगी। मेरा पहला उपदेश यह है कि गुरू ही तेरा सर्वस्व है। मैं ही तेरा सब कुछ हूँ।

ज्ञानी—महाराज, आपकी अमृतवाणीसे मेरे चित्तको बड़ी