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संग्राम

१२


कम नहीं, कितनी सरलहृदया, कितनी मधुरभाषिणी रमणी है। अगर मेरा जरासा इशारा हो तो भागमें कूद पड़े। मुझपर उसकी कितनी भक्ति, कितना प्रेम है। कभी सिरमें दर्द भी होता है तो बावली हो जाती है। अब उधर मन को जाने ही न दूंँगा।

(कुर्सीसे उठकर अलमारीसे एक ग्रन्थ निकालते हैं, उसके दो चार पन्ने इधर-उधरसे उलटकर पुस्तकको मेज़पर रख देते हैं और फिर कुर्सीपर जा बैठते हैं। अचलसिंह हाथमें एक हवाई बन्दूक लिये दौड़ा आता है।)

अचल––दादाजी, शाम हो गई। आज घूमने न चलियेगा?

सबल––नहीं बेटा! आज तो जानेका जी नहीं चाहता। तुम गाड़ी जुतवा लो। यह बन्दुक कहाँ पाई?

अचल––इनाममें। मैं दौड़ने में सबसे अव्वल निकला। मेरे साथ कोई २५ लड़के दौड़े थे। कोई कहता था मैं बाज़ी मारूँगा, कोई अपनी डींग मार रहा था। जब दौड़ हुई तो मैं सबसे आगे निकला , कोई मेरे गर्दको भी न पहुँचा, अपनासा मुँह लेकर रह गये। इस बन्दूकसे चाहूँ तो चिड़िया मार लूँ।

सबल––मगर चिड़ियों का शिकार न खेलना।

अचल––जी नहीं, योंही बात कहता था। विचारी चिड़ियोंने मेरा क्या बिगाड़ा है कि सनकी जान लेता फिरूं। मगर जो