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चतुर्थ दृश्य

(स्थान—राजेश्वरीका मकान, समय—१० बजे रात।)

राजेश्वरी—(मनमें) मेरे ही लिये जीवनका निर्वाह करना क्यों इतना कठिन हो रहा है। संसारमें इतने आदमी पड़े हुए हैं। सब अपने- अपने धन्धों में लगे हुए हैं। मैं ही क्यों इस चक्कर में डाली गई हूँ। मेरा क्या दोष है? मैंने कभी अच्छा खाने-पहनने या आरामसे रहनेकी इच्छा की जिसके बदलेमें मुझे यह दण्ड मिला हो? मैं जबरदस्ती इस कारागारमें बन्द की गई हूँ। यह सब बिलासकी चीजें जबरदस्ती मेरे गले मढ़ी गई हैं। एक धनी पुरुष मुझे अपने इशारोंपर नचा रहा है। मेरा दोष इतना ही है कि मैं रूपवती हूँ और निर्बल हूँ। इसी अपराधकी यह सजा मुझे मिल रही है। जिसे ईश्वर धन दे, उसे इतना सामर्थ्य भी दे कि धनकी रक्षा कर सके। निर्बल प्राणियोंको रत्न देना उनपर अन्याय करना है।

हा! कंचनसिंहपर आज न जाने क्या बीती। सबलसिंहने अवश्य ही उनको मार डाला होगा। मैंने उनपर कभी क्रोध