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संग्राम

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चढ़ते नहीं देखा था। क्रोध तो मानों उनपर भूत सवार हो जाता है। मरदोंको उत्तेजित कर देना कितना सरल है। उनकी नाड़ियोंमें रक्तकी जगह रोष और ईर्षाका प्रवाह होता है। ईर्षाकी ही मिट्टीसे उनकी सृष्टि हुई है। यह सब विधाताकी विषम लीला है।

(गाती है)

दयानिधि तेरी गति लखि न परी।

(सबलसिहका प्रवेश)

राजेश्वरी—आइये, आपकी ही बाट जो रही थी। उधर ही मन लगा हुआ था। आपकी बातें याद करके शंका और भयसे चित्त बहुत व्याकुल हो रहा था। पूछते डरती हूँ......

सबल—(मलिन स्वरसे) जिस बातकी तुम्हें शंका थी वह हो गई।

राजे०—अपने ही हाथों?

सबल—नहीं। मैंने क्रोधके आवेगमें चाहे मुंहसे जो बक डाला हो, पर अपने भाईपर मेरे हाथ नहीं उठ सके। पर इससे मैं अपने पापका समर्थन नहीं करना चाहता। मैंने स्वयं हत्या की और उसका सारा भार मुझपर है। पुरुष कड़ेसे कड़ा आघात सह सकता है। बड़ीसे बड़ी मुसीबत झेल सकता है, पर यह चोट नहीं सह सकता। यही उसका मर्मस्थान है।