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संग्राम

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वह रत्न हाथसे खो दिया जिसका जोड़ अब संसारमें मुझे न मिलेगा। कंचन आदर्श भाई था। मेरा इशारा उसके लिये हुक्म था। मैंने जरा सा इशारा कर दिया होता तो वह भूलकर भी इधर पग न रखता। पर मैं अन्धा हो रहा था, उन्मत्त हो रहा था। मेरे हृदयकी जो दशा हो रही है वह तुम देख सकती तो कदाचित् तुम्हें मुझपर दया आती। ईश्वरके लिये मेरे घावों पर नमक न छिड़को। अब तुम्हीं मेरे जीवन का आधार हो। तुम्हारे लिये मैंने इतना बड़ा बलिदान किया है। अब तुम मुझे पहलेसे कहीं अधिक प्रिय हो। मैंने पहले सोचा था केवल तुम्हारे दर्शनोंसे, तुम्हारी मीठी बातोंको सुननेसे, तुम्हारी तिरछी चितवनोंसे, मैं तृप्त हो जाऊँगा। मैं केवल तुम्हारा सहवास चाहता था। पर अब मुझे अनुभव हो रहा है कि मैं गुड़ खाना और गुलगुलोंसे परहेज करना चाहता था। मैं भरे प्यालेको उछाल कर भी चाहता था कि उसका पानी न छलके। नदीमें जाकर भी चाहता था कि दामन न भीगे। पर अब मैं तुमको पूर्णरूपसे चाहता हूँ। मैं तुम्हारा सर्वस्व चाहता हूँ। मेरी विकल आत्माके लिये सन्तोषका केवल यही एक आधार है। अपने कोमल हाथोंको मेरी दहकती हुई छातीपर रखकर शीतल कर दो।

राजे०—मुझे अब आपके समीप बैठते हुए भय होता है।