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संग्राम

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करूंगा। पर राजेश्वरी, मुझे तुमसे इस निर्दयताकी आशा न थी। सौंदर्य्य और दयामें विरोध है, इसका मुझे अनुमान न था। मगर इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। यह अवस्था ही ऐसी है। हत्यारेपर कौन दया करेगा? जिस प्राणीने सगे भाईको ईर्षा और दम्भके वश होकर वध करा दिया वह इसी योग्य है कि चारों ओर उसे धिक्कार मिले। उसे कहीं मुंह दिखानेका ठिकाना न रहे। उसके पुत्र और स्त्री भी उसकी ओरसे आंखें फेर लें, उसके मुंहमें कालिमा पोत दी जाय और उसे हाथीके पैरोंसे कुचलवा दिया जाय। उसके पापका यही दंड है। राजेश्वरी, मनुष्य कितना दीन, कितना परवश प्राणी है। अभी एक सप्ताह पहले मेरा जीवन कितना सुखमय था। अपनी नौकामें बैठा हुआ धीमी-धीमी लहरोंपर बहता, समीरके शीतल, मन्द तरङ्गोंका आनन्द उठाता चला जाता था। क्या जानता था कि एक ही क्षणमें वह मंद तरंगें इतनी भयङ्कर हो जायंगी, शीतल झोंके इतने प्रबल हो जायंगे कि नावको उलट देंगे। सुख और दुख, हर्ष और शोकमें उससे कहीं कम अन्तर है जितना हम समझते हैं। आंखोंका एक जरासा इशारा, मुंहका एक जरासा शब्द, हर्षको शोक और सुखको दुख बना सकता है। लेकिन हम यह सब जानते हुए भी सुखपर लौ लगाये रहते हैं। यहां तक कि फांसीपर चढ़नेसे एक क्षण पहले तक हमें सुखकी