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चौथा अङ्क

२४३

राजे०—आपके सिवा अब मेरा कौन है?

सबल—तो प्रिये, मैं अभी मौतको कुछ दिनोंके लिये द्वारसे टाल दूंगा। अभी न मरूंगा। पर हम अब यहां नहीं रह सकते। हमें कहीं बाहर चलना पड़ेगा जहां अपना कोई परिचित प्राणी न हो। चलो आबू चलें, जी चाहे काश्मीर चलो, दो-चार महीने रहेंगे, फिर जैसी अवस्था होगी वैसा करेंगे। पर इस नगरमें मैं नहीं रह सकता। यहांकी एक-एक पत्ती मेरी दुश्मन है।

राजे०—घरके लोगोंको किसपर छोड़ियेगा?

सबल—ईश्वरपर! अब मालुम हो गया कि जो कुछ करता। है ईश्वर करता है। मनुष्य के किये कुछ नहीं हो सकता।

राजे०—यह समस्या कठिन है। मैं आपके साथ बाहर नहीं जा सकती।

सबल—प्रेम तो स्थानके बन्धनोंमें नहीं रहता।

राजे०—इसका यह कारण नहीं। अभी आपका चित्त अस्थिर है, न जाने क्या रंग पकड़े। वहां परदेशमें कौन अपना हितैषी होगा, कौन विपत्तिमें अपना सहायक होगा। मैं गवांरिन, परदेश करना क्या जानूं। ऐसा ही है तो आप कुछ दिनोंके लिये बाहर चले जायं।

सबल—प्रिये, यहांसे जाकर फिर आना नहीं चाहता,