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चौथा अङ्क

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दो तो जान न बचे। यहांतक कि कोई किसीको लासखुन नहीं कह सकता नहीं तो खूनकी नदी बहने लगे। यहां क्या है, लात खाते हैं, जूते खाते हैं, घिनौनी गालियां सुनते हैं, धर्मका नाश अपनी आंखोंसे देखते हैं, पर कानोंपर जूं नहीं रेंगती, खून जरा भी गर्म नहीं होता। चमड़ीके पीछे सब तरहकी दुर्गत सहते हैं। जान इतनी प्यारी हो गई है। मैं ऐसे जीनेसे मौतको हजार दर्जे अच्छा समझता हूँ। बस यही समझ लो कि जो आदमी प्रानको जितना ही प्यारा समझता है वह उतना ही नीच है। जो औरत हमारे घरमें रहती थी, हमसे हंसती थी, हमसे बोलती थी, हमारे खाटपर सोती थी वह अब......(क्रोधसे उन्मत्त होकर) तुमलोग लौटनेतक यहीं रहो। कंचनसिंहको देखते रहना।

(चला जाता है)