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चौथा अङ्क

२५५

(ज्ञानी रोती हुई जाने लगती है, सबल रास्तेमें खड़ा
हो जाता है)

प्रिये, इतनी निर्दयता न करो। मेरा हृदय टुकड़े २ हुआ जाता है। (रास्तेसे हटकर) जाओ। मुझे तुम्हें रोकनेका कोई अधिकार नहीं है। मैं पतित हूं, पापी हूँ, दुष्टाचारी हूँ। न जाने क्यों पिछले दिनोंकी याद आ गई, जब मेरे और तुम्हारे बीचमें यह बिच्छेद न था, जब हम तुम प्रेम-सरोवरके तटपर विहार करते थे, उसकी तरंगोंके साथ झूमते थे। वह कैसे आनन्दके दिन थे। अब वह दिन फिर न आयेंगे। जाओ, न रोकूँगा,पर मुझे बिलकुल नजरोंसे न गिरा दिया हो तो एक बार प्रेमकी चितवनसे मेरी तरफ देख लो। मेरा सन्तप्त हृदय उस प्रेमकी फुहारसे तृप्त हो जायगा। इतना भी नहीं कर सकती? न सही। मैं तो तुमसे कुछ कहनेके योग्य ही नहीं हूं। तुम्हारे सम्मुख खड़े होते, तुम्हें यह काला मुँह दिखाते, मुझे लज्जा आनी चाहिये थी। पर मेरी आत्माका पतन हो गया है। हां, तुम्हें मेरी एक बात अवश्य माननी पड़ेगी, उसे मैं जबरदस्ती मनवाऊँगा, जबतक न मानोगी जाने न दूंगा। मुझे एक बार अपने चरणोंपर सिर झुकाने दो।

(ज्ञानी रोती हुई अन्दरके द्वारकी तरफ बढ़ती है)

सबल—क्या मैं अब इस योग्य भी नहीं रहा? हां, मैं अब