पृष्ठ:संग्राम.pdf/२७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

संग्राम

२५६

घृणित प्राणी हूँ; जिसकी आत्माका अपहरण हो चुका है। पूजी जानेवाली प्रतिमा टूटकर पत्थरका टुकड़ा हो जाती है,उसे किसी खण्डहरमें फेंक दिया जाता है। मैं वही टूटी हुई प्रतिमा हूँ और इसी योग्य हूँ कि ठुकरा दिया जाऊँ। तुमसे कुछ कहनेका, तुम्हारी दया-याचना करनेके योग्य मेरा मुंह ही नहीं रहा। जाओ। हम तुम बहुत दिनोंतक साथ रहे। अगर मेरे किसी व्यवहारसे, किसी शब्दसे, किसी आक्षेपसे तुम्हें दुःख हुआ हो तो क्षमा करना। मुझसा अभागा संसारमें न होगा जो तुम जैसी देवी पाकर उसकी कद्र न कर सका।

(ज्ञानी हाथ जोड़कर सबल नेत्रोंसे ताकती है, कंठसे

शब्द नहीं निकलता)

(सबल तुरत मेज़परसे पिस्तौल उठाकर बाहर निकल जाता है)

ज्ञानी—(मनमें) हताश होकर चले गये। में तस्कीन दे सकती, उन्हें प्रेमके बन्धनसे रोक सकती तो शायद न जाते। मैं किस मुंहसे कहूं कि यह अभागिनी पतिता तुम्हारे चरणोंका स्पर्श करने योग्य नहीं है। वह समझते हैं मैं उनका तिरस्कारकर रही हूं, उनसे घृणा कर रही हूं। उनके इरादेमें अगर कुछ कमजोरी थी तो वह मैंने पूरी कर दी। इस यज्ञकी पूर्णाहुति मुझे करनी पड़ी। हा विधाता, तेरी लीला अपरम्पार है। जिस पुरुष पर इस समय मुझे अपना प्राण अर्पण करना चाहिये था मैं आज