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संग्राम

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अब यही अन्तिम जालसा है। दयानिधि, मेरी यह भमिलाषा पूरी करो। हा, जननी धरती, तुम क्यों मुझे अपनी गोद में नहीं ले लेती? दीपकका ज्वाला-शिखर क्यों मेरे शरीरको भस्म नहीं कर डालता! यह भयंकर अन्धकार क्यों किसी जल-जन्तुकी भांति मुझे अपने उदरमें शरण नहीं देता!

(प्रस्थान)