संग्राम
२६२
उसे मुझसे प्रेम है, अटल प्रेम है; वह मेरी अकल्याण नहीं देख सकती। जबसे मैंने उसे अपना वृत्तान्त सुनाया है वह कितनी चिन्तित, कितनी सशंक हो गई है। प्रेमके सिवा और कोई शक्ति न थी जो उसे राजेश्वरीके घर खींच ले जाती।
धीरे इधर-उधर ताकता हुआ सबलके कमरेकी
हलधर—(मनमें) यहां किसीकी आवाज़ आ रही है, (भाला संभालकर) यहां कौन बैठा हुआ है। अरे! यह तो सबल सिंह ही है। साफ़ उसीकी आवाज है। इस वक्त यहां बैठा क्या कर रहा है। अच्छा है यहीं काम तमाम कर दूँगा। कमरेमें न जाना पड़ेगा। इसी हौजमें फेंक दूँगा। सुनूं क्या कह रहा है।
सबल—बस, अब बहुत सोच चुका। मन इस तरह बहाना ढूंढ़ रहा है। ईश्वर तुम दगाके सागर हो, क्षमाकी मूत्ति हो। मुझे क्षमा करना, अपनी दीनवत्सलतासे मुझे वञ्चित न करना। कहा निशाना लगाऊँ। सिरमें लगानेसे तुरत अचेत हो जाऊँगा। कुछ न मालूम होगा प्राण कैसे निकलते हैं। सुनता हूँ प्राण निकलनेमें कष्ट नहीं होता। बस, छातीपर निशाना मारूँ।
भाला फेंककर झपटता है और सबल सिह के