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संग्राम

१८


मूर्तिको इतना विकराल स्वरूप दे दिया जाय?

ज्ञानी―(मुसुकुराकर) नमक-मिर्च लगाना कोई तुमसे सीख ले। मुझे भोली पाकर बातोंमें उड़ा देते हो। लेकिन आज मैं न मानूंगी।

सबल―ऐसी जल्दी क्या है? मैं स्वामीजीको यहीं बुला लाऊँगा, खूब जी भरकर दर्शन कर लेना। वहां बहुतसे आदमी जमा होंगे, उनसे बातें करने का भी अवसर न मिलेगा। देखने वाले हंसी उड़ायेंगे कि पति तो साहब बना फिरता है और स्त्री साधुओंके पीछे दौड़ा करती है।

ज्ञानी―अच्छा तो कब बुला दोगे?

सबल―कलपर रखो।

(ज्ञानी चली जाती है)

सबलसिंह―(आपही आप)सन्तानकी क्यों इतनी लालसा होती है? जिसके सन्तान नहीं है वह अपनेको अभागा समझता है, अहर्निश इसी क्षोभ और चिन्तामें डूबा रहता है। यदि यह लालसा इतनी व्यापक न होती तो आज हमारा धार्मिक जीवन कितना शिथिल, कितना नीरव होता। न तीर्थ-यात्राओं की इतनी धूम होती, न मन्दिरोंकी इतनी रौनक, न देवताओंमें इतनी भक्ति, न साधु-महात्माओंपर इतनी श्रद्धा, न दान और व्रतकी इतनी धूम। यह सब कुछ सन्तान-लालसा का ही