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संग्राम

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मुझे खींच लिया। मेरी इतनी मान-प्रतिष्ठा थी कि मैं पाखण्डी हो गया, नरसे पिशाच हो गया। हां,मैं पिशाच हो गया।

हा! मेरे कुकर्म मुझे चारों ओरसे घेरे हुए हैं। उनके स्वरूप कितने भयङ्कर हैं। वह मुझे निगल जायंगे। भगवन् ,मुझे बचाओ। वह सब अपने मुँह खोले मेरी ओर लपके चले आते हैं।

(आखें बन्द कर लेते हैं)

ज्ञानी! ईश्वरके लिये मुझे छोड़ दो। कितना विकराल स्वरूप है। तेरे मुखसे ज्वाला निकल रही है। तेरी आँखोंसे आगकी लपटें आ रही हैं। मैं जल जाऊँगा, झुलस जाऊँगा। भस्म हो जाऊँगा। तू कैसी सुन्दरी थी। कैसी कोमलांगी थी! तेरा यह रौद्र रूप नहीं, तू वह सती नहीं,वह कमलकीसी आंखें, वह पुष्पकेसे कपोल कहाँ हैं। नहीं, यह मेरे अधर्मों का, मेरे दुष्कर्मों का मूर्तिमान स्वरूप है, मेरे दुष्कर्मों ने यह पैशाचिक रूप धारण किया है। यह मेरे ही पापोंकी ज्वाला है। क्या मैं अपने ही पापोंकी आगमें जलूँगा? अपने ही बनाये हुए नर्कमें पड़ूंगा?

(आंखें बन्द करके हाथोंसे हटानेकी चेष्टा करके)

नहीं, मैं ईश्वरकी शपथ खाता हूँ, अब कभी ऐसे कर्म न करूँगा। मुझे प्राण दान दे। आह, कोई विनय नहीं सुनता। ईश्वर मेरी क्या गति होगी। मैं इस पिशाचिनीके मुखका ग्रास