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संग्राम

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खर्च करता हूँ कहांसे आये।"

मुनीम―वे बुद्धिमान पुरुष हैं पर न जाने वे फजूल खर्ची क्यों करते हैं?

कञ्चन―मुझे बड़ी लालसा है कि एक विशाल धर्मशाला बनवाऊँ। उसके लिये धन कहांसे आयेगा? भाई साहबके आज्ञानुसार नाममात्रके लिये ब्याज लूँ तो मेरी यह सब काम-नाए धरी ही रह जायें। मैं अपने भोग विलासके लिये धन नहीं बटोरना चाहता, केवल परोपकार के लिये चाहता हूँ। कितने दिनोंसे इरादा कर रहा हूँ कि एक सुन्दर वाचनालय खोल दूँ। पर पर्याप्त धन नहीं। यूरोपमें केवल एक दानवीरने हजारों वाचनालय खोल दिये हैं। मेरा हौसला इतना बड़ा तो नहीं पर कमसे कम एक उत्तम वाचनालय खोलनेकी अवश्य इच्छा है। सूद न लूँ तो मनोरथ पूरे होने के और क्या साधन हैं? इसके अतिरिक्त यह भी तो देखना चाहिये कि मेरे कितने रुपये मारे जाते हैं। जब असामीके पास कुछ जायदाद ही न हो तो रुपये कहांसे वसूल हों। यदि यह नियम कर लूँ कि बिना अच्छी जमानतके किसीको रुपये ही न दूँगा तो गरीबोंका काम कैसे चलेगा। अगर गरीबोंसे व्यवहार न करूँ तो अपना काम नहीं चलता। यह बिचारे रुपये चुका तो देते हैं। मोटे आदमियोंसे लेन-देन कीजिये तो अदालत गये बिना कौड़ी नहीं